सबसे पहले मैं समस्त देशवासियों को भारतीय संविधान दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई देता हूँ। मैं संविधान की अपने शब्दों में व्याख्या अथवा समीक्षा करने का प्रयास करूॅ तो गारंटी है मेरी व्याख्या अत्यंत तुच्छ प्रमाणित हो जाएगी। इसलिये मैं स्वयं को भारतीय संविधान की निष्ठापूर्वक पूरी व्याख्या के लिये अयोग्य ठहराता हॅू, क्योंकि मैं जानता हूँ कि भारतीय संविधान की विशेषता केवल एक अल्प लेख में समाहित नहीं हो सकती। चूंकि आज संविधान दिवस है, इसलिये संविधान की स्वच्छ मानसिकता के साथ चर्चा न करना भी अन्याय होगा इसलिये मैं आगं संविधान की चर्चा करने का प्रयास करूंगा इसके पहले अपने बचपन की एक संदर्भ लिख देना चाहता हूँ ताकि मैं आपको समझाने में सायद थोड़ा सफल हो जाऊं।
मैं बचपन में ग्रीष्मकालीन अवकाश अक्सर अपने ग्राम के संभु मण्डल सहित बड़े बुजुर्गो केे सानिध्य में गुजारता था। एक दिन की बात है संभु मण्डल, संभुदास जांगडे के बरामदे में कुछ बुजुर्गों के साथ वे बैठे थे, उन दिनों वे आसपास के गांव के बुद्धजीवियों में सर्वश्रेष्ठ स्थान रखने वाले सबसे अधिक लगभग 120 वर्ष आयु के सज्जन व्यक्ति हुआ करते थे। विभिन्न विषयों में चर्चा के दौरान एक प्रश्न आया कि ‘‘मौजूदा धर्मों में सर्वश्रेष्ठ धर्म कौन है?’’ इस पर अपना विचार प्रकट करते हुए कहा कि (1) ऐसा धर्म जो आपको आपके गरीमामय जीवन के लिये सारे प्राकृतिक अधिकार प्रदान करे। (2) भेदभाव से परे रहकर न सिर्फ समानता पर आधारित हो वरन् समानता की पैमाने से भी उपर उठकर न्याय जिसकी सर्वोच्च प्राथमिकता हो। (3) केवल प्रशंसा ही नहीं वरन् आपको धार्मिक समीक्षा का भी अधिकार दे। (4) जो आपको गुमराह करने वाला अथवा कल्पना लोक की सैर कराते हुए आपके साथ अबोध बालक की तरह बर्ताव करके गुमराह न करे।यदि इन विशेषताओं वाली कोई मौजूदा धर्म हो तो निःसंदेह वह सर्वश्रेष्ठ धर्म होगा। आप सभी भलिभांति जानते हैं कि मैं लगभग समस्त मौजूदा धर्मों के आधारभूत विशेषताओं का जानकार हूँ और मेरे जानकारी और विश्वास के आधार पर मानवता का धर्म की सर्वश्रेष्ठ धर्म है, इसके लिये हम भारतीय परिपेक्ष्य में देखें तो भारत का संविधान वास्तविक वृहद धर्मग्रंथ है। जो किसी भी स्थिति में किसी व्यक्ति से कोई भेदभाव नहीं करता है।
संविधान में निहित विशेष उपबंध जिसमें महिलाओं और बालकों से संबंधित तथा जातिगत आरक्षण की बात करें तो यह एक सामाजिक न्याय की प्रक्रिया है इसे असमानता अथवा भेदभाव बताने का दुष्प्रचार करना धुर्ततापूर्ण है। यदि आप किसी विशेष वर्ग के हितों की संरक्षण के लिए दिए गए विशेष उपबंधों की स्वच्छ मानसिकता समीक्षा करेंगे तो पाएंगे कि यह ठीक वैसे ही है जैसे आप यहां से 6 किलोमीटर दूर नदी-नालों और मेडो से होकर अखरार मेला जाते हैं तो अपने बच्चे को गोद या कंधे में बिठाकर ले जाते हैं उन्हें सर्कस या कुछ खास चीजें दिखाने के लिये उन्हें कंधे पर बिठा लेते हैं। यदि समानता के आधार पर संविधान मे दिए गए किसी विशेष उपबंधों की खंडन करना चाहते हैं तो पहले आप अपने एक दिन से लेकर 5साल उम्र के बाल को भी कहें कि वे खूद चलकर अखरार मेला जायें, अपने लिये खूद भोजन बनायें और वो सबु कुछ जो आप बेहतर कर सकते हैं उसे उसी रिति से बेहतर करे।
माफ करियेगा, मेरा उद्देश्य ये कहानी बताना नहीं वरन् आपको यह समझाना है कि संविधान ही ऐसा धर्मग्रंथ है जो किसी भी धर्म से लाखों गुणा अधिक अधिकार देता है। इसलिये ये पठनीय और पूज्यनीय है। सबसे खास बात कि संविधान देशकाल और परिस्थितियों के साथ संशोधनीय भी है। आज संविधान दिवस के अवसर पर आपसे एक ही निवेदन करना चाहता हूँ कि संविधान की कुछ व्याख्या मुर्खों, धुर्तों और अमानवीय लोगों के द्वारा भी अपने व्यक्तिगत और सामाजिक हितों को सर्वापरि रखकर किया गया है। प्लीज आपसे हाथ जोडकर विनति है कि आप धुर्तों के झांसे में न आयें आप पहले स्वयं संविधान को जरूर पढ़ लें। क्योंकि हम सब भारतीय नागरिकों के लिये संविधान ही एकलौता विधान है जो हमें सबकुछ देता है मगर लेता कुछ खास नहीं है, लेने की बात आ ही गई तो केवल 10 मूल कर्तव्य, मगर देने को लाखों बहुमूल्य और आवश्यक अधिकार देता है।
अंत में पुनः संविधान पढ़ने की अनुरोध के साथ संविधान दिवस की हार्दिक बधाई।
(हुलेश्वर जोशी)
नोटः इस आलेख के लेखक श्री हुलेश्वर जोशी एक उभरता हुआ समाज सेवक, दार्शनिक और धार्मिक नेता हैं जो कतिपय मामलों में संविधान और मानव अधिकारों के जानकार भी हैं।