भगत सिंह
एक ऐसा नाम
जो खून में उतर जाता है
रोमांच से भर देता है
नसें फड़क उठती हैं
आदर्श जग उठते हैं
छोटे पन से घृणा होने लगती है
आत्ममोह दूर भाग जाता
मेहनतकशों के चेहरे
सामने आ जाते हैं
हर अन्याय के खात्मे के लिए
उद्धत कर देता है
अन्यायी सत्ताओं को चुनौती देने का
साहस पैदा हो जाता है
मेरे नायक
आपको सलाम!
अपनी भावनाओं, विचारों और कुर्बानियों के चलते कोई व्यक्ति किसी देश में क्रांति की अनवरत जलती मशाल बन जाता है, चाहे जितनी आंधी आए, चाहे जितने तूफान आएं, वह मशाल बुझती नहीं। हां उसकी लौ कभी धीमी पड़ती और कभी तेज हो जाती है। भारतीय समाज में सिर्फ साढ़े तेईस वर्ष का एक नौजवान भगत सिंह क्रांति की एक ऐसी ही मशाल बन गया, जो लोगों के दिलो-दिमाग में जलती रहती है और दिलो-दिमाग को रोशन करती रहती है। सच कहूं तो भारत की क्रांतिकारी चेतना को भगत सिंह ने यदि अपने लहू से खाद-पानी दिया, तो अपने विचारों से उसे पल्लवित-पुष्पित किया और इंकलाब जिंदाबाद के प्रतीक बन गए।
भगत सिंह को शहीद हुए करीब 82 साल हो गए, लेकिन आज भी वे लाखों नहीं करोड़ों लोगों के जेहन में जिंदा हैं। सिर्फ जिंदा नहीं उनसे प्रेरणा लेकर लाखों लोग लाठी-गोली खाने, जेल जाने और शहीद होने को तैयार हैं। लाखों लोग उनके नाम पर अपना जीवन विभिन्न रूपों में कुर्बान कर रहे हैं या कर चुके हैं। ऐसे लोग देश के किसी एक हिस्से और किसी एक खास समुदाय के नहीं हैं। भगत सिंह को चाहने वालों में हर धर्म, क्षेत्र, भाषा एवं हर जाति के लोग शामिल हैं। इसमें स्त्री-पुरूष दोनों हैं। ऐसे लोग देश के कोने-कोने में हैं। आज भी विश्वविद्यालयों में, कॉलेजों में, गांवों में, स्लम बस्तियों में और खेत-खलिहानों में नौजवानों की टोली भगत सिंह का प्रिय गीत ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ गाते और इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाते मिल जायेगी।
सवाल यह उठता है कि आखिर मात्र साढ़े तेईस वर्ष की उम्र में फांसी के फंदे को चूम लेने वाला नौजवान कैसे भारतीय क्रांति का प्रतीक बन गया। क्या सिर्फ इसलिए कि वह फांसी के फंदे को चूमा था, उसने अपना जीवन जेल की सलाखों के बीच काटा या वह अंग्रेजों को देश से भगाना चाहता था। तो इसका उत्तर होगा नहीं, सिर्फ ये बातें ही उसको क्रांति की अनवरत चलती मशाल नहीं बनाती हैं। ऐसा बहुत सारे लोगों ने किया। फिर भगत सिंह ही क्रांति के प्रतीक या क्रांति की अनवरत चलती मशाल कैसे बन गए?
भगत सिंह क्रांति की अनवरत चलती मशाल इसलिए बन गए क्योंकि उनकी संवेदना और विचारों का दायरा मनुष्य-मनुष्य के बीच खड़ी की गई सभी दीवारों को तोड़ देता है। भगत सिंह के संदर्भ में चमनलाल का यह कथन बिल्कुल सटीक है कि “ अपने सात वर्ष के ( 16 वर्ष की उम्र में भगत सिंह ने 1923 में घर छोड़ा था, क्रांतिकारी कार्यवाहियों में शामिल हुए) अल्पकालिक तूफानी बाज जैसे क्रांतिकारी जीवन में कार्यकर्ता, संगठनकर्ता, चिंतक और लेखक के रूप में भगत सिंह ने जो भूमिका निभाई और जिस शान व आन के साथ उन्होंने 23 मार्च 1931 को शहादत के लिए फांसी का रस्सा गले में पहना, उसकी मिसाल भारत में ही नहीं, दुनिया में बहुत कम देखने को मिलती है।”
भगत सिंह की संवेदना का दायरा यदि धरती जैसा विशाल था, तो चेतना अनंत आकाश को छूती थी। भगत सिंह ने केवल ब्रिटिश साम्राज्य को नहीं ललकारा उन्होंने विश्वव्यापी साम्राज्यवाद को चुनौती दी, उन्होंने देश की आजादी के नाम पर अपने लिए राज चाहने वाले देशी पूंजीपतियों को ललकारते हुए उन्हें काला अंग्रेज कहा और उन्हें उखाड़ फेंकने का आह्वान किया, उन्होंने जाति व्यवस्था को ललकारा, उन्होंने धर्म के आधार पर हर बंटवारे को ललकारा, उन्होंने स्त्री-पुरूष के बीच के हर विभेद को ललकारा।
इतना ही नहीं उन्होंने ईश्वर को भी ललकारा और खुलेआम घोषणा किया कि उसका कोई अस्तित्व नहीं है और बताया कि मैं नास्तिक क्यों हूं। वे दुनिया के सारे पूंजीपितयों और उत्पीड़कों को एक ही समझते थे, चाहे वे देशी हों या विदेशी। वे दुनिया के सारे शोषितों, उत्पीड़ितों और अन्याय के शिकार लोगों को अपना समझते थे, चाहे वे अपने देश के हों या विदेश के। उन्होंने खुलेआम घोषणा किया कि दुनिया भर में पूंजीवाद का विनाश, अन्याय, शोषण एवं उत्पीड़न के खात्मे की अनिवार्य शर्त है। उन्होंने क्रांति का ऐलान किया और कहा कि क्रांति के बाद मेहनतकशों का राज कायम होगा। उन्हें दुनिया भर के सारे मेहनतकश अपने लगते थे और सारे परजीवी घृणा के पात्र। चाहे वे देशी हों या विदेशी। वे एक ऐसी दुनिया की कल्पना करते थे, जिसमें कोई अपना और पराया का भेद न हो।
उन्होंने अपने लेख ‘विश्व प्रेम’ में लिखा कि “ कैसा उच्च है यह विचार! सभी अपने हों। कोई पराया न हो। कैसा सुखमय होगा वह समय, जब संसार में परायापन सर्वथा नष्ट हो जायेगा, जिस दिन यह सिद्धांत समस्त संसार में व्यवहारिक रूप में परिणत होगा, उस दिन संसार को उन्नति के शिखर पर कह सकेंगे। जिस दिन प्रत्येक मनुष्य इस भाव को हद्यगम कर लेगा, उस दिन संसार कैसा होगा? जरा इसकी कल्पना कीजिए।” ( यह करीब 17 वर्ष के भगत सिंह के उद्गार हैं)।
20 वीं शताब्दी के पहले चरण में हजारों-हजार भगत सिंह दुनिया के कोने-कोने में मौजूद थे। 1917 में मेहनतकशों ने रूस में अपना राज कायम कर लिया था। इस शताब्दी के पहले चरण में दुनिया भर में मेहनतकशों के राज का सपना लिए करोड़ों लोग लड़ रहे थे और लगातार जीत पर जीत हासिल कर रहे थे। हर तरह के अन्याय के खिलाफ संघर्ष चल रहा था। अन्याय, शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ लड़ना, लाठी खाना, जेल जाना, गोली खाना और फांसी पर चढ़ जाना नौजवान होने की निशानी मानी जाती थी। इन्हीं लोगों में एक भगत सिंह भी थे।
आज हम 21वीं शताब्दी के पहले चरण में जी रहे हैं। जीवन के हर क्षेत्र में बौनों और बौने पन का का बोलबाला है। बौने मानवता के कीर्ति स्तम्भों पर चढ़कर उछल-कूद कर रहे हैं। मुक्तिबोध की कविता की पैरोडी करने की हिम्मत जुटाकर कर कहें तो, ये बौने दुनिया भर के नौजवानों को एक ही सीख दे रहे हैं, वह यह कि –
आदर्श को खा जाओ
विवेक बघार डालो स्वार्थों के तेल में
स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पाल लो,
भावना के कर्तव्य-त्याग तो,
हृदय के मन्तव्य-मार डालो!
बुद्धि का भाल ही फोड़ दो,
तर्कों के हाथ उखाड़ दो,
जम जाओ, जाम हो जाओ, फँस जाओ,
अपने ही कीचड़ में धँस जाओ!!
उदरम्भरि बन अनात्म बन जाओ,
भूतों की शादी में क़नात-से तन जाओ,
किसी व्यभिचारी के बन जाओ बिस्तर,
दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहनो,
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहो,
असंग बुद्धि व अकेले में सहो,
ज़िन्दगी को बना लो निष्क्रिय तलघर,
करुणा के दृश्यों से मुँह मोड़ लो,
बन जाओ पत्थर,
मर जाए देश तो मर जाए, तुम तो खुद बच जाओ…”
इस मनोभाव से हमें भगत सिंह रूपी जलती मशाल ही बचा सकती है। हमें उनके जीवन एवं विचारों की आंच में तपने के लिए तैयार होना चाहिए, तभी हम भगत सिंह के सपनों की वह दुनिया रच सकते हैं, जिसका सपना भगत सिंह ने देखा था। यही हमारी उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
सिदार्थ रामू जी के फेसबुक वॉल से