(तमिलनाडु में सामाजिक न्याय की 110 वर्षों की यात्रा- जिससे हिंदी पट्टी की बहुजन राजनीति सीख ले सकती है )
तमिलनाडु में द्रविड़ बहुजन राजनीति की औपचारिक शुूरूआत 1916 में तब हुई, जब जस्टिस पार्टी ने गैर-ब्राह्मण घोषणा-पत्र जारी किया। ब्राह्मणवाद बनाम गैर-ब्राह्मणवाद का संघर्ष ही इस घोषणा-पत्र का मूल स्वर था। तमिलनाडु (तब मद्रास प्रेसीडेंसी) में ब्राह्मणों का वर्चस्व किस कदर था, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1912 में वहां ब्राह्मणों की आबादी सिर्फ 3.2 प्रतिशत थी, जबकि 55 प्रतिशत जिला अधिकारी और 72.2 प्रतिशत जिला जज ब्राह्मण थे। मंदिरों और मठों पर ब्राह्मणों का कब्जा तो था ही जमीन की मिल्कियत भी उन्हीं लोगों के पास थी। इस प्रकार तमिल समाज के जीवन के सभी क्षेत्रों में ब्राह्मणों का वर्चस्व था।
1915-1916 के आसपास मंझोली जातियों की ओर से सी.एन. मुलियार, टी. एन. नायर और पी. त्यागराज चेट्टी ने जस्टिस आंदोलन की स्थापना की थी। इन मंझोली जातियों में तमिल वल्लाल, मुदलियाल और चेट्टियार प्रमुख थे। इनके साथ ही इसमें तेलुगु रेड्डी, कम्मा, बलीचा नायडू और मलयाली नायर भी शामिल थे। 1920 में मोंटेग-चेम्सफोर्ड सुधारों के अनुसार मद्रास प्रेसीडेंसी में एक द्विशासन प्रणाली बनायी गयी जिसमें प्रेसीडेंसी में चुनाव कराने के प्रावधान किये गए। इस चुनाव में जस्टिस पार्टी ने भाग लिया और एक गैर-ब्राह्मणों के नेतृत्व और प्रभुत्व वाली जस्टिस पार्टी सत्ता में आई। इस पार्टी के नेतृत्व में पहली बार तमिलनाडु में 1921 में सरकारी नौकरियों में गैर ब्राह्मणों के लिए आरक्षण लागू हुआ
1916 से 1944 तक जस्टिस पार्टी द्रविड़ आंदोलन की राजनीतिक अगुवाई करती रही। 1940 में पेेरियार इस पार्टी के संरक्षक बन गए। 1944 में अन्नादुरई के प्रस्ताव पर जस्टिस पार्टी की जगह एक नई पार्टी द्रविड़ कड़गम बनी। इस पार्टी ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन और जातिवादी आधिपत्य के खिलाफ एक साथ संघर्ष करने का निर्णय लिया। इस पार्टी का मानना था कि कांग्रेस ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की समाप्ति तो चाहती है, लेकिन तमिलना़डु में उच्च जातियों का वर्चस्व कायम रखना चाहती है। यहां यह ध्यान रखना जरूरी है कि तमिलनाड़ु में उच्च जाति के रूप में ब्राह्मण ही थे।
1949 में द्रविड कड़गम से अलग होकर अन्नादुरई ने द्रविड़ मुनेत्र कड़गम ( डीएमके) पार्टी बनायी। करूणानिधि इसके प्रमुख नेताओं में से एक थे। इस दौरान वे तमिलनाड़ु के समाज और राजनीति में एक बड़ी शख्सियत के रूप में उभर चुके थे। 1957 में डीएमके पार्टी तमिलनाडु के विधानसभा और लोकसभा चुनावों में हिस्सेदारी की। 1957 में करूणानिधि पहली बार विधायक चुने गए। इसके बाद चुनावी राजनीति के सफर में उन्हेंं कभी हार का मुंह नहीं देखना पड़ा, भले ही उनकी पार्टी चुनावों में हार गई हो। 1967 के चुनाव में डीएमके पहली बार सत्ता में आई और अन्नादुरई मुख्यमंत्री बने। इस चुनावी जीत का श्रेय अन्नादुरई ने करूणानिधि को देिया। 3 फरवरी 1969 को अन्नादुरई का निधन हो गया और उनके उत्तराधिकारी के रूप में 10 फरवरी 1969 को करूणानिधि पहली बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने।वे पांच बार (1969–71, 1971–76, 1989–91, 1996–2001 और 2006–2011) मुख्यमंत्री रहे।
भले ही डीएमके पेरियार की पार्टी द्रविड़ कड़गम से अलग होकर बनी थी, लेकिन सत्ता में आने बाद अन्नादुरई और बाद में करूणानिधि दोनों ने मुख्यमंत्री के रूप में उनके विचारों व्यवहार में उतारने की कोशिश की। पहले कदम के तौर पर अन्नादुरई ने तमिलनाडु में शादी की पद्धति को बदल दिया और आत्मसम्मान विवाह पद्धति को लागू किया। मद्रास का नाम बदल कर तमिलनाडु कर दिया और तमिलनाडु में दो भाषा आधारित शिक्षा नीति को लागू किया। पहली भाषा तमिल और दूसरी अंग्रेजी। अन्नादुरई के मुख्यमंत्री रहते ही पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिेए आयोग के गठन की प्रक्रिया शुरू हुई। इन सभी निर्णयों में करूणानिधि की भूमिका अहम थी। अन्नादुरई के निधन के बाद मुख्यमंत्री बनने के बाद 1971 में करूणानिधि ने ओबीसी आयोग की रिपोर्ट को लागू किया। उन्होंने पिछड़े वर्गों के आरक्षण को 25 प्रतिशत से बढ़ाकर 31 प्रतिशत कर दिया और एससी/एसटी के आरक्षण 16 प्रतिशत से बढ़ाकर 18 प्रतिशत कर दिया। 1989-1991 में मुख्यमंत्री बनने के दौरान उन्होंने आरक्षण में उपवर्गीकरण करके उपेक्षित जातियों को प्रतिनिधित्व दिया। जैसा कि जिक्र किया जा चुका है कि इसी कार्यकाल के दौरान उन्होंने महिलाओं को सरकारी नौकरियों में 30 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिया।
भूमि संबंधों में परिवर्तन और इसके मालिकाना की स्थिति में बदलाव के लिए भी करूणानिधि ने कई कदम उठाए। भूमि सुधार अधिनियम 1970 के माध्यम से उन्होंने सीलिंग की सीमा मानक 30 एकड़ से घटाकर 15 एकड़ कर दिया। इस अधिनियम के माध्यम से उन्होंने वासस्थान की जमीन पर सबको मालिकाना हक प्रदान कर दिया। ध्यान रहे पहले वासस्थान की भूमि के मालिक भी जमींदार ही होते थे,भले ही वहां अन्य लोग घर बनाकर रहते हों। वेे पहले मुख्यमंत्री थे जिन्होंने हाथों से खींचे जाने वाले रिक्शे को खत्म कर दिया। हाथों से रिक्शा खींचने वालों को साइकिल रिक्शा उपलब्ध कराने के लिए उन्होंने कई कदम उठाए और इसका परिणाम यह हुआ कि हाथ से खींचने वाले रिक्शे तमिलनाडु से गायब हो गए। उन्होंने सभी जातियों के लोग मदिंरो में पुजारी बन सके इसके लिए निरंतर प्रयास किया। तमाम कानूनी अड़चनों के बाद भले ही उनकी यह इच्छा बहुत बाद में पूरी हुई।
करूणानिधि आजीवन खुद को पेरियार का वैचारिक शिष्य और अन्नादुरई का राजनीतिक शिष्य मानते रहे। 1969 में तमिलनाडु का मुख्यमंत्री बनने का बाद उन्होंने पेरियार के 91वें जन्मदिन पर कहा, “ पेरियार तमिलनाडु के सरकार हैं।” भले ही यह टिप्पणी अपने शिक्षक के प्रति एक तात्कालिक भावात्मक प्रतिक्रिया हो, लेकिन यह सच है कि करूणानिधि पेरियार के विचारों को अमली जामा पहनाने की कोशिश करते रहे और द्रविड़ आंदोलन को किसी न किसी रूप में जिंदा रखे।
तमिलनाडु का की बहुजन राजनीति का आरक्षण मॉडल
तमिलनाडु में ओबीसी, एससी और एसटी के लिए 69 प्रतिशत आरक्षण है। जो करीब चार हिस्सों में विभाजित है। 46.5 प्रतिशत ओबीसी के लिए है,जो दो हिस्सों में विभाजित है। 26.5 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग ( B.Cs) और 29 प्रतिशत अत्यधिक पिछड़ा (MB.Cs)।
दलितों ( एससी) के लिए 18 प्रतिशत आरक्षण है। इसमें से 3 प्रतिशत एससी में अत्यधिक पिछड़े अरूनधाधियार समुदाय के लिए है।
मुसलमानों के लिए भी 3.5 प्रतिशत आरक्षण है।
एसटी के लिए 1 प्रतिशत आरक्षण है,क्योंकि तमिलनाडु की आबादी में उनका अनुपात सिर्फ 1.10 प्रतिशत है।
तमिलनाडु में आज का आरक्षण तीन शताब्दी ( 19वीं, 20 वीं और 21 वीं) तक चले संघर्ष नतीजा है।
आज के तमिलनाडु के बहुजन राजनीति के एजेंडे, उसकी सफलता और बिहार एवं उत्तर प्रदेश से उसकी तुलना
नीति आयोग की राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की 2021 की रैंकिंग (NITI Aayog State Ranking – 2021) की रिपोर्ट इस मॉडल की सफलता की कहानी कहती है । 2020-21 की यह रिपोर्ट 3 जून को जारी हुई। इस सूचकांक की शुरुआत दिसंबर 2018 में हुई थी और यह देश में सतत विकास लक्ष्य सूचकांक (एसडीजी) पर प्रगति की निगरानी के लिए प्रमुख साधन बन गया है। पहले संस्करण 2018-19 में 13 ध्येय, 39 लक्ष्यों और 62 संकेतकों को शामिल किया गया था, जबकि इस तीसरे संस्करण में 16 ध्येय, 70 लक्ष्यों और 115 संकेतकों को शामिल किया गया। नीति आयोग की एसडीजी इंडिया इंडेक्स में राज्यों और संघ प्रशासित क्षेत्रों का सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरण के क्षेत्र में इनकी प्रगति को मापता है और इसी के आधार पर रैंकिंग करता है।
सतत विकास लक्ष्य सूचकांक (एसडीजी) के 16 लक्ष्यों को हासिल करने के मामले में केरल शीर्ष पर बना हुआ है, जबकि तमिलनाडु दूसरे स्थान पर है। तमिलनाडु के साथ हिमाचल प्रदेश भी दूसरे स्थान पर है। 100 अंकों में केरल को 75 अंक प्राप्त हुए हैं, तमिलनाडु सिर्फ एक अंक पीछे है और उसके 74 अंक हैं, जबकि राष्ट्रीय औसत 66 है यानी राष्ट्रीय औसत से 9 अंक अधिक केरल को प्राप्त है, तो 8 अकं अधिक तमिलनाडु को प्राप्त है। सबसे बदत्तर स्थिति बिहार की है, जिसे सिर्फ 52 अंक प्राप्त हुए हैं, जबकि उत्तर प्रदेश के 60 अंक हैं। गरीबी दूर करने के मामले में तमिलनाडु 86 अंकों के साथ सबसे ऊपर है, वहां सिर्फ 11.28 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं, जबकि भारत में औसत तौर पर करीब 28 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। भूख खत्म करने का मामले में उसके 66 अंक हैं, बिहार के 32 अंक और उत्तर प्रदेश के 41 अंक हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में तमिलनाडु के 81 अकं हैं, बेहतर शिक्षा के मामले में उसके 69 अंक हैं। साफ पीने का पानी और साफ-सफाई के मामले में उसके 87 अंक हैं। तमिलनाडु के 100 प्रतिशत घरों में बिजली उपलब्ध है। असमानता कम करने के मामले में उसके 74 अंक हैं। शांति, न्याय और मजबूत संस्थाओं के मामले में उसके 71 अंक है। यदि तमिलनाडु के अंकों की बिहार और उत्तर प्रदेश के अंकों से तुलना करें, तो वह क्रमश: 22 अंक और 14 अंक आगे हैं। हिंदी पट्टी के अधिकांश प्रदेश पासिंग मार्क (60 प्रतिशत) के आस-पास ही हैं। सबसे रेखांकित करने वाली बात यह है कि पिछले वर्ष तमिलनाडु तीसरे स्थान पर था और उसके सिर्फ 67 अंक थे, अब उसके 74 अंक है। इस तरह उसने अपनी स्थिति बेहतर कर दूसरा स्थान हासिल किया है। इस रैंकिंग में पोषण (भूख से मुक्ति और स्वास्थ्यवर्धक पोषण), गरीबी से मुक्ति, बाल मृत्यु दर, गर्भवती महिलाओं की स्थिति, बच्चों के पोषण, स्वास्थ्य सेवाएं, साफ और शुद्ध पीने का पानी, शिक्षा का स्तर, आवास, बिजली की उपलब्धता, सामाजिक-आर्थिक समानता का स्तर आदि शामिल हैं।
कोविड और तमिलनाडु की बहुजन राजनीति
तमिलनाडु कोविड-19 की दूसरी लहर के शिकार लोगों को मानवीय सहायता प्रदान करने के मामले में भी बहुत आगे रहे। मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने तमिलनाडु के प्रत्येक परिवार को कोरोना राहत के रूप में 4000 दिया। उन्होंने सरकारी बसों में सभी महिलाओं के लिए नि: शुल्क यात्रा की घोषणा की। कोरोना के चलते सबसे गंभीर संकट के शिकार पूरे देश में वे बच्चे हुए, जिन्होंने कोरोना के चलते अपने माता-पिता दोनों खो दिए। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने घोषणा किया कि इन बच्चों के पालन-पोषण और पढ़ाई की पूरी जिम्मेदारी तमिलनाडु सरकार उठाएगी। इसके साथ ऐसे बच्चों के नाम 5 लाख रुपए का फिक्स डिपॉजिट किया गया, जो उन्हें ब्याज सहित 18 वर्ष की उम्र होने पर प्राप्त होगा। यदि किसी बच्चे ने माता-पिता में से किसी एक को खो दिया है, जीवित गार्जियन को 3 लाख रुपए की मदद दी । माता-पिता दोनों खो चुका कोई बच्चा सरकारी आवास में नहीं रहना चाहता है और अपने किसी नजदीकी रिश्तेदार की देख-देख में रहता है, तो उस गार्जियन को बच्चे के देख-रेख के लिए प्रति महीने 3 हजार रुपया प्रदान किया गया, जब तक वह 18 वर्ष का नहीं हो जाता है। इसके साथ मुख्यमंत्री ने कोविड-19 के दौरान चिकित्सा सेवा देते हुए अपनी जान गंवाने वाले प्रत्येक चिकित्साकर्मी को 25 लाख रुपए की क्षतिपूर्ति दी।
आर्थिक विकास की योजना और तमिलनाडु की बहुजन राजनीति
तमिलनाडु के आर्थिक विकास और जन कल्याणकारी योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए भी मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने रोडमैप तैयार किया है जिसके लिए दुनियाभर से आर्थिक विशेषज्ञों से सलाह एवं सहायता मांगी है और उनकी सलाह एवं सहायता से योजनाएं बनाने और क्रियान्वयन करने का निर्णय लिया है। इसे ‘मुख्यमंत्री के लिए आर्थिक सलाहकार परिषद’ नाम दिया गया है। जिसमें जाने-माने अर्थशास्त्रियों में नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. एस्थर डुफ्लो (Nobel Laureate Prof. Esther Duflo), आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन, डॉ. अरविंद सुब्रमण्यम (केंद्र सरकार के पूर्व आर्थिक सलाहकार), प्रोफेसर जीन द्रेज (जिन्हें गरीबों का अर्थशास्त्री कहा जाता है) और डॉ. एस. नारायण हैं।” इस परिषद के सलाह के साथ राज्य सरकार राज्य की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाया और यह सुनिश्चित किया आर्थिक विकास का लाभ समाज के सभी वर्गों तक पहुंच सके।
धार्मिक-सांस्कृति न्याय और समता के लिए तमिलनाडु एम. के. स्टालिन सरकार की घोषणा
जन-कल्याण और राज्य के आर्थिक विकास के लिए उपरोक्त कदमों के साथ तमिलनाडु की सरकार ने सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से भी एक महत्वपूर्ण कदम उठाया। तमिलनाडु की सरकार ने 100 दिन में 200 गैर-ब्राह्मण पुजारियों की नियुक्ति की घोषणा की, जिसमें स्त्री-पुरुष दोनों शामिल हैं। जल्द ही 100 दिन का ‘शैव अर्चक’ कोर्स शुरू किया, जिसे करने के बाद कोई भी पुजारी बन सकता है। नियुक्तियां तमिलनाडु हिंदू रिलीजियस एंड चैरिटेबल इंडॉमेंट डिपार्टमेंट (एचआर एंड सीई) के अधीन आने वाले 36,000 मंदिरों में नियुक्तियां होंगी। कुछ ही दिनों में 70-100 गैर-ब्राह्मण पुजारियों की पहली सूची जारी हो गई। इस बीच, तमिलनाडु के धर्मार्थ मामलों के मंत्री पी.के. शेखर बाबू ने कहा है कि मंत्रालय के अधीन आने वाले मंदिरों में पूजा तमिल में होगी। जहां अधिकांश लोगों ने इसका स्वागत किया है, वहीं भाजपा ने कहा है कि द्रमुक पार्टी की नींव हिंदू विरोध के मूल विचार पर पड़ी है। क्या सरकार किसी मस्जिद या चर्च को नियंत्रण में लेगी? प्रदेश भाजपा उपाध्यक्ष के.टी. राघवन ने कहा- सरकार चाहती है कि मंत्र तमिल में बोले जाएं। यह कैसे हो सकता है? डीएमके राजनीतिक लाभ के लिए हिंदुओं में मतभेद पैदा कर रही है। ब्राह्मण पुजारी संघ के प्रतिनिधि एन. श्रीनिवासन कहते हैं कि 100 दिन का कोर्स करके कोई कैसे पुजारी बन सकता है? यह सदियों की पुरानी परंपरा का अपमान है। इसका जवाब देते हुए शैव मतावलंबी पुरोहित नटराजन कहा कि “आगम शास्त्र के अनुसार (मंदिरों में पूजा पद्धति की नियमावली) न तो महिलाओं को न तो किसी जाति विशेष को अनुष्ठानों (धार्मिक) के संपन्न करने पर रोक लगाई गई है। इसकी कोई भी दूसरी व्याख्या पूजा की नियमावली का कुपाठ होगा। महिलाएं मासिक धर्म के दौरान धार्मिक अनुष्ठान संपन्न करने के अयोग्य होती हैं, इसका जवाब देते हुए नटराजन कहा कि – “ मासिक धर्म के दौरान रक्त बहना कभी भी उनकी अपवित्रता का कारण नहीं है, यह सिर्फ एक जैविक प्रक्रिया है, जैसे कि पेशाब करना और मल त्याग करना।” उन्होंन यह भी कहा कि “तमिलों का ऐतिहासिक तौर पर मानना था कि लोगों को जाति के आधार पर बांटने और पहचान करने से बदत्तर कोई चीज नहीं होती।” (द इंडियन एक्सप्रेस, 20 जून) वह यह तथ्य भी रेखांकित करती हैं कि तमिलनाडु के स्थानीय मंदिरों में पहले से ही 25 प्रतिशत से अधिक पुजारी महिलाएं हैं। वे इतिहास के हवाले से यह भी तर्क देती हैं कि “ तमिलअकम् (तमिलों की प्राचीन भूमि) में कभी भी जाति नहीं रही है, तमिलों के व्याकरण और साहित्य के सबसे प्राचीन ग्रंथ तोलकाअ्प्पियम में जाति का कोई जिक्र नहीं है। वे सातवीं शताब्दी के तमिल साहित्य के महत्वपूर्ण ग्रंथों का जिक्र करते हुए बताती हैं, इनमें किसी में भी जाति का कोई जिक्र नहीं है। वह जोर देकर कहती हैं कि तमिल परंपरा में महिलाओं को समता का अधिकार प्राप्त रहा है, हमें उसका अनुसरण करना चाहिए।
तमिलनाडु के मंदिरों में महिलाओं को पुजारी के रूप में नियुक्ति की घोषणा पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए प्रताप भानु मेहता टिप्पणी किया “इस रूपान्तरणकारी विचार को पूरे देश के मंदिरों में अवश्य ही आगे बढ़ाना चाहिए। दो टूक तौर पर कहा जाए, तो कोई भी धर्म इसके मार्ग में बाधा नहीं है। इसके मार्ग में बाधा मृत पंरपराएं, पितृसत्ता की शक्ति और राजनीति है।…” ( द इंडियन एक्सप्रेस, 22 जून 2021)
सभी समुदायों के साथ न्याय के लिए एम. के. स्टालिन का 25 सूत्रीय एजेंडा और बहुजन राजनीति
एम. के स्टालिन ने 17 जून 2021 को दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भेंट की थी और उन्हें 25 मांगों का ज्ञापन सौंपा। जिसमें अधिकांश मांगें व्यापक भारतीय जनता के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक हितों और व्यापक जन-कल्याण के लिए जरूरी हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री से नई शिक्षा नीति को वापस लेने की मांग की। उन्होंने यह भी मांग रखी कि राज्यों को यह अधिकार हो कि वे आरक्षण की सीमा अपने-अपने प्रदेशों की सामाजिक-शैक्षणिक और आर्थिक जरूरतों के अनुसार बढ़ा सकें और एससी, एसटी और ओबीसी को उनके आबादी के अनुपात में आरक्षण प्रदान कर सकें। ओबीसी के आरक्षण के संदर्भ में क्रीमीलेयर के प्रावधान को खत्म करने, संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण, मद्रास हाईकोर्ट की आधिकारिक भाषा तमिल घोषित करने की भी मांग रखी। इसके साथ उन्होंने नागरिकता संशोधन अधिनियम (Citizenship Amendment Act, सीएए) 2019 को रद्द करने और तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की भी मांग पुरजोर तरीके से रखी थी।
उपरोक्त तथ्यों का विश्लेषण करें, तो पाते हैं कि तमिलनाडु की राजनीति में जनहित का मुद्दा सर्वोपरि होता है। लोक-कल्याणकारी योजनाएं और सामाजिक न्याय वहां की राजनीति की धुरी है। ये दोनों तत्व तमिलनाडु की राजनीति के ऐसे बुनियादी तत्व बन चुके हैं कि कोई पार्टी इनको केंद्रीय मुद्दा बनाए बिना अपना वजूद न तो कायम कर सकती है और न ही बनाए रख सकती है। सत्ता में कोई पार्टी आए उसे लोक-कल्याणकारी योजनाओं को जारी रखना होता है और सामाजिक न्याय के दायरे को विस्तारित करने के बारे में योजनाएं बनानी पड़ती हैं। इसी कारण से सत्ता परिवर्तन के बाद भी तमिलनाडु केरल की तरह राज्य मानव विकास सूचकांक और बेहतर गर्वनेंस के मामले में निरंतर आगे बढ़ता रहता है। 7 मई 2021 को तमिलनाडु में डीएमके की सरकार बनने और एम. के. स्टालिन के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के पहले भी तमिलनाडु एडीएमके पार्टी के शासन में भी निरंतर विकास के पथ पर अग्रसर था। यह विकास निरपेक्ष जीडीपी के संदर्भ में नहीं, बल्कि लोक-कल्याण के संदर्भ में भी हो रहा था। उसी का परिणाम था कि नीति आयोग की सतत विकास लक्ष्य सूचकांक के 2021 की रिपोर्ट में तमिलनाडु ने 7 अंकों की छलांग लगाकर 74 अंक प्राप्त कर लिया और केरल से सिर्फ 1 अंक पीछे रहकर हिमाचल प्रदेश के साथ संयुक्त रूप से दूसरा स्थान प्राप्त किया। विकास के जिन 16 लक्ष्यों पर उसने यह अंक हासिल किए हैं, वह तब तक संभव नहीं था, जब तक कि व्यापक जनता के गुणवत्तापूर्ण जीवन का प्रश्न एक व्यवस्थागत और सरंचनागत प्रश्न न बन जाए और जनता गुणवत्तापूर्ण जीवन को अपना ऐसा हक न समझ ले, जिसे वह किसी भी सूरत में छोड़ने को तैयार न हो, साथ ही जनता यह माने कि गुणवत्तापूर्ण जीवन उपलब्ध कराना किसी भी सरकार की अहम जिम्मेदारी है और इसके लिए वह जनता के प्रति जवाबदेह है। अकारण नहीं है, तमिलनाडु में चुनाव के मुद्दे लोक-कल्याणकारी योजनाएं और सामाजिक न्याय होते हैं।
मंदिरों में गैर-ब्राह्मण पुजारियों और महिलाओं की नियुक्ति और तमिल भाषा में पूजा-अनुष्ठानों का आदेश इस बात का ज्वलंत उदाहरण है कि तमिलनाडु सामाजिक समता और न्यायपूर्ण धार्मिक-सांस्कृतिक समाज के निर्माण के प्रति अभी भी प्रतिबद्ध है और यह वहां के बहुसंख्यक समाज का मुद्दा बन चुका है, बहुत छोटा-सा अल्पसंख्यक हिस्सा है, जो इसका प्रत्यक्ष या परोक्ष तरीके से विरोध कर रहा है या करता रहा है। इसके साथ तमिलनाडु बहुजन राजनीति का एक मॉडल भी है, जो यह बार-बार रेखांकित करता है कि सिर्फ आरक्षण ही बहुजन राजनीति का एकमात्र मुद्दा नहीं होना चाहिए। हां यह सच है कि आरक्षण को छोड़कर भी बहुजनों के सशक्तीकरण और सामाजिक समता एवं न्याय की परिकल्पना नहीं की जा सकती है और न ही वंचित तबकों को वाजिब एवं जरूरी प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है, लेकिन आरक्षण तक खुद को सीमित रखना आर्थिक तौर पर सिर्फ बहुजनों को मध्यमवर्गीय एक छोटे से दायरे तक खुद को सीमित रखना है। तमिलनाडु मॉडल यह बताता है कि बहुजन राजनीति का मतलब है- सबके लिए समृद्धि, न्याय और समता। इसको हम तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के स्टालिन द्वारा प्रधानमंत्री को सौंपे गए 25 सूत्रीय ज्ञापन से समझ सकते हैं, वे जहां एक ओर राज्यों को आरक्षण सीमा बढ़ाने की छूट की मांग करते हैं, तो दूसरी ओर महिलाओं के लिए संसद एवं विधान सभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण की भी मांग रखते हैं, इसके साथ ही वे अपसंख्यकों के सबसे बड़े मुद्दे सीएए को रदद् करने की पुरजोर वकालत करते हैं। साथ ही वे तीन कृषि कानूनों को तत्काल रदद् करने की भी सिफारिश करते हैं। वे भाषा के प्रश्न की अहमियत को भी नहीं भूलते और मद्रास हाईकोर्ट के कामकाज की आधिकारिक भाषा तमिल बनाने की लिए केंद्र सरकार से अनुरोध करते हैं। इन 25 मांगों को देखकर कोई भी आसानी से अंदाजा लगा सकता है कि किसी बहुजन राजनीति की पैरोकारी करने वाले किसी भी राजनीतिक पार्टी का एजेंडा क्या होना चाहिए।
आखिर में एक प्रश्न पर विचार कर लेना जरूरी है, वह यह कि क्या केरल या तमिलनाडु सापेक्षिक तौर पर भारत के उन्नत मॉडल – कुछ व्यक्तियों के करिश्मे के परिणाम हैं या उसके वस्तुगत ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कारण हैं। मानव जाति के विकासक्रम के इतिहास का हर अध्येता यह जानता है कि बेहतर समाज के निर्माण में वस्तुगत परिस्थितियों और नेतृत्वकारी व्यक्तित्वों (नायकों) दोनों की भूमिका होती है। यह तथ्य तमिलनाडु मॉडल के संदर्भ में भी लागू होता है। ऐतिहासिक तौर पर तमिल समाज हिंदी पट्टी की पतनशीलता के सबसे बड़े कारण वर्ण-जाति व्यवस्था और उसे पोषित करने वाले हिंदू धर्म से एक हद तक मुक्त रहा और उसके वर्चस्व की कोशिशों के खिलाफ निर्णायक संघर्ष चलते रहें। द्रविड़ परंपरा का विकास आर्य वैदिक हिंदू परंपरा से गुणात्मक तौर से भिन्न रही है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि सातवीं शताब्दी तक तमिल भाषा में लिखे गए ग्रंथों में जाति व्यवस्था का कोई उल्लेख नहीं है। तमिलनाडु, जिसे अंग्रेजों के जमाने में मद्रास प्रेसीडेंसी कहा जाता था, आर्य परंपरा के विपरीत आनार्य द्रविड़ परंपरा का वाहक रहा है। इसके सबसे अधिक प्रमाण तमिल भाषा और साहित्य में मिलते हैं। पूरे भारत में तमिलनाडु एक ऐसा क्षेत्र रहा है, जिसका सबसे बाद में और सबसे कम हिंदूकरण या ब्राह्मणीकरण हुआ। यह हिंदूकरण या ब्राह्मणीकरण समता की तमिल परंपरा और तमिल भाषा-संस्कृति को पूरी तरह खत्म नहीं कर पाया और न ही उसका पूरी तरह हिंदूकरण कर पाया यानी हजारों वर्षों की अनार्य द्रविड़ परंपरा तमिलनाडु में निरंतर प्रवाहमान रही।
आधुनिक तमिलनाडु में बहुजन राजनीति की वैचारिक नींव आयोथी थास ( दलित-) ( 20 मई 1845-1914 ) ई. वी. रामासामी पेरियार ( पिछडे) ( 17 सितंबर 1879-24 दिसंबर 1973) ने डाली।
लेखक सिद्धार्थ रामू जी के फेसबुक वॉल से साभार