कायस्थों को द्विज वर्ण ( ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) शूद्र मानता है, विशेषकर वर्ण-श्रेणी क्रम के सबसे बड़े व्याख्याता ब्राह्मण। जबकि कायस्थ खुद को कभी शूद्र मानने के तैयार नहीं । वे खुद को द्विजों में गिनते रहते हैं। यह कशमकश चलती रहती है।
इस कशमकश में विवेकानंद भी आजीवन फंसे रहे। वे वर्ण-जाति व्यवस्था और ब्राह्मण एवं ब्राह्मणत्व की प्रशंसा करते रहे, लेकिन इस सब से भी ब्राह्मणों का दिल नहीं पसीजा नहीं, वे उन्हें शूद्र कहते रहे और उनके ( शूद्र) सन्यासी होने पर सवाल उठाते रहे।
लेकिन विवेकानंद ने इसका जवाब यह कहकर नहीं दिया कि वर्ण-जाति कुछ नहीं होती है, बल्कि उन्होंने इसके उलट इसका जवाब यह कहकर दिया कि मैं जिस जाति ( कायस्थ) में पैदा हुआ हूं, वह सर्वश्रेष्ठ जाति है। मैं चित्रगुप्त का वंशज हूं, जिनके सामने ब्राह्मण भी सिर नवाते हैं। इसके साथ ही उन्होंने यह भी गिनाया कि उनकी जाति में कितने महान-महान लोग पैदा हुए हैं।
वर्ण-जाति में विश्वास रखने वाला आदमी जातीय कुंठा से मुक्त नहीं हो सकता है,चाहे वह विवेकानंद ही क्यों न हो। वह महानता के दंभ और नीचता की कुंठा के बीच पिसता रहता है।
जब विवेकानंद की जातीय श्रेष्ठता के दावों को ब्राह्मणों ने नहीं स्वीकार किया, तो दलितों ( पेरियार) जैसे बनने और उनके कामों को महान बताने की बातें करने लगे। शौचालय आदि साफ करने की बात करने लगे। जैसे गांधी वाल्मीकि ( मेहतर) लोगों के कामों को महान कर्म कहने लगे थे। ऐसी ही बात मोदी ने अपनी एक किताब में लिखी थी।