बेकसूर नग्न प्रदर्शकों के ऊपर गैर-कानूनी कार्यवाही के खिलाफ हाई कोर्ट जज से शिकायत|
संविधान-जानकार बी. के. मनीष रायपुर जिला प्रभारी पोर्ट्फ़ोलियो जज न्यायमूर्ति संजय के. अग्रवाल बेकसूर से नग्न प्रदर्शकों के ऊपर गैर-कानूनी कार्यवाही के खिलाफ शिकायत की है| अनुच्छेद 227 के तहत प्रशासकीय कार्रवाई के लिए रजिस्ट्रार जनरल हाई कोर्ट के माध्यम से भेजी इस ईमेल में निवेदन किया गया है|
इन नग्न प्रदर्शकों के खिलाफ़ दर्ज एफ़आईआर में आईपीसी की 146, 147, 294, 332, 353 धाराएं लगाई गई हैं जिनमें अधिकतम दंड तीन वर्ष का है| इसलिए जूडीशियल मजिस्ट्रेट और रायपुर पुलिस के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट के अरणेश कुमार बनाम बिहार फ़ैसले के उल्लंघन के लिए भी कार्रवाई संभव है|
स्थानीय चैनल के साथ चर्चा में बी.के. मनीष ने अपना अनुभव भी बताया| 2012 में तथाकथित अर्धनग्न प्रदर्शन के लिए जेल भेजे जाने का जिक्र कर पांचवीं अनुसूची पर उनकी जनहित याचिका खारिज करने पर शासकीय अधिवक्ता ने जोर दिया था|
तत्कालीन न्यायमूर्ति सुनील कुमार सिन्हा की खंड पीठ ने टिप्पणी की कि यदि बी.के. मनीष डकैती करते हुए भी पकड़े गए होते तो उसका इस जनहित याचिका से क्या संबंध है? उन्होने याद दिलाया कि एम. नागराज के संविधान पीठ फ़ैसले में साफ़ किया गया है कि मूलभूत अधिकार संविधान से भी पुराने और स्थापित हैं|
बी.के. मनीष का कहना है कि अनुच्छेद 19(1)(क) और (ख) नियम हैं जबकि 19(2) सिर्फ़ उसका अपवाद है जोकि नियम से बड़ा नहीं हो सकता| शासन को कोई अधिकार नहीं कि वह तय करे कि कोई व्यक्ति कहां और किस सलीके से प्रदर्शन करेगा| हर प्रदर्शनकारी अपने कृत्यों और उनकी वैधानिकता के लिए खुद जिम्मेदार है| रायपुर पुलिस को यह गलतफ़हमी है कि किसी भी प्रदर्शन को रोक सकना उसका अधिकार है| इसलिए पुलिस ने एफ़आईआर में बिना तफ़सील दिए दावा कर लिया है कि प्रदर्शनकारियों ने शासकीय कार्य में बाधा पहुंचाई और पुलिसकर्मियों को क्षति पहुंचाई| इन आरोपों को साबित कर पाना अब लगभग असंभव है|
ज्यादातर टिप्पणीकारों को यह मालूम नहीं है कि अवीक सरकार बनाम पश्चिम बंगाल, जोसेफ शाईन बनाम भारत संघ फ़ैसलों के बाद नग्नता मात्र अश्लीलता नहीं कही जा सकती| चूंकि प्रदर्शनकारियों ने कपड़े उतारते हुए या उतारने के बाद कोई कामुक इशारेबाजी नहीं की है इसलिए वह सार्वजनिक अश्लील कृत्य के दोषी नहीं होंगे| संविधान पीठ ने यह साफ़ किया है कि बहुसंख्यक समुदाय की नैतिकता से नहीं न्यायालय को सिर्फ़ संवैधानिक नैतिकता से ही मतलब है|
वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को 18 जुलाई के प्रेस नोट और बाद में प्रदर्शनकारियों के आपराधिक इतिहास का प्रचार करने के लिए हर्जाना भी भरना पड़ सकता है| पुलिस द्वारा नैतिकता पर प्रवचन देना और मिथ्या जाति प्रमाण पत्र विषय पर हुई कार्रवाई पर लिखित सफ़ाई पेश करना सीआरपीसी के अध्याय 10 की अवहेलना है| कार्यपालिक दंडाधिकारी की भूमिका कब्जाना विभागीय कार्रवाई और सिविल दावे का आधार बन सकता है|
ध्यान रहे कि जीएडी सचिव कमलप्रीत सिंह और मोदीजी के राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह के खिलाफ़ मिथ्या जाति प्रमाण पत्र विषय पर शासकीय नोट शीट के आपराधिक प्रमाण सार्वजनिक रूप से उपलब्ध रहे हैं| छत्तीसगढ हाई कोर्ट ने हमेशा सुप्रीम कोर्ट की व्यापक पीठों के बजाए दो-जजों की पीठों के कुछ गलत/अबंधनकारी फ़ैसलों का सहारा लेकर अविधिक फ़ैसले दिए हैं|
इस प्रकरण को अनुच्छेदों 14, 19 और 21 के उल्लंघन का छत्तीसगढ के इतिहास में सबसे जटिल मामला ठहराते हुए बी.के. मनीष ने सलाह दी है कि जमानत याचिका के बजाए बंदी प्रत्यक्षीकरण (हेबियस कॉर्पस) की रिट याचिका बिलासपुर उच्च न्यायालय में दायर की जाए| वैसे हो सकता है कि न्यायमूर्ति संजय के. अग्रवाल अथवा मुख्य न्यायमूर्ति की पहल पर उच्च न्यायालय इस मामले में स्वत: संज्ञान ले ले|