बहुजन समाज के कुशवाह जाति में 2 फरवरी 1922 को जन्में जगदेव प्रसाद जितने बड़े क्रांतिकारी नेता और संगठनकर्ता थे, उतने ही बड़े चिंतक-विचारक भी थे। उनके चिंतन की जड़े भारतीय जमीन में थी, उन्होंने दुनिया की चिंतन परंपरा से बहुत कुछ ग्रहण किया, लेकिन उन्होंने भारत की ठोस समस्याओं का ठोस विश्लेषण किया और ठोस समाधान प्रस्तुत किया। भारतीय समाज में किस तरह की क्रांति की जरूरत है, उस क्रांति का कौन दोस्त और दुश्मन होगा और कौन उसकी अगुवाई करेगा, इस विषय पर उन्होंने मौलिक तरीके से चिंतन-मनन किया। सच यह कि यही उनके चिंतन का मुख्य विषय था। उनका मानना था कि 15 अगस्त 1947 को भारत भले ही ब्रिटिश साम्राज्य से आजाद हो गया, लेकिन ऊंची जाति के साम्राज्यवादियों से दलित, आदिवासियों, मुसलमानों और पिछड़ी जातियों को मुक्ति नहीं मिली। जगदेव बाबू ने कहा कि “1947 में जो सपना हम लोगों ने देखा था, उसमें पांच प्रतिशत भी सफलता नहीं मिली। हिंदुस्तान में जितने दल हैं, उनका नेतृत्व ऊंची जात के हाथ में है। चाहे वह कांग्रेस हो या जनसंघ, कम्युनिस्ट हों या संयुक्त सोशलिस्ट, प्रजा सोशलिस्ट हों या स्वतंत्र पार्टी सभी पर उन्हीं का कब्जा है। हिंदुस्तान की तमाम बीमारियों की ये लोग जड़ हैं।” (पृ.22) उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि “ ऊंची जात वाले साम्राज्यवादी हैं। ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहार साम्राज्यवादी हैं- उनके गरीब भिखमंगे भी। इनका दूसरा नाम द्विज है। चौथा नाम सामंत है। ये हिंदुस्तान के जार और कुलांक ( जमींदार) हैं।” ( जगदेव प्रसाद वांग्मय, डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह, शशिकला, सम्यक प्रकाशन, 2018, पृ.75) वे भारत को ऊंची जातियों का उपनिवेश मानते थे। इसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि “ आज का हिंदुस्तान 10 प्रतिशत ऊंची जात का एक विशाल उपनिवेश है। सब चीजों पर इन्हीं का एकाधिकार है।” ( वही, पृ.74) ऊंची जातियों के जिस एकाधिकार की चर्चा 14 नवंबर 1969 को जगदेव प्रसाद कर रहे हैं, वह एकाधिकार आज भी कायम हैं। सारे आंकड़े इसकी गवाही देते हैं।
वे 10 प्रतिशत ऊंची जातियों को शोषक और 90 प्रतिशत बहुजन समाज को शोषित वर्ग में रखते थे। उनका कहना था कि “ दलित (हरिजन), आदिवासी, मुसलमान और पिछड़ी जातियां शोषित हैं।” ( पृ.83) वे असली लडाई इन्हीं ऊंची जाति के शोषकों और 90 प्रतिशत बहुजन शोषितों के बीच मानते थे। वे मुसलमानो को शोषितों के जमात में शामिल करते हुए कहते हैं कि “ हां, तमाम मुसलमान शोषित हैं-अमीर हो या गरीब। मुसलमान जब शासक थे, तो शोषक थे, मगर आज वे शोषित हैं। अन्य जातियों की तरह मुसलमान भी इस देश में दूसरे-तीसरे दर्जे के शहरी हो गए हैं। अव्वल दर्जे के शहरी इस मुल्क में सिर्फ द्विज हैं।” ( पृ.74) 1969 में मुसलमानों की जिस स्थिति का बयान जगदेव बाबू कर रहे हैं, वह अब अपने भयावह रूप में सामने आ गई है, अब तो सीएए और एनआरसी के माध्यम से उनके इस देश की नागरिक होने पर ही प्रश्न चिह्न उठाया जा रहा है।
वे कम्युनिस्ट पार्टियों सहित सभी पार्टियों को द्विजवाद का पोषक मानते थे। शोषक-शोषित की इस पूरी व्यवस्था को वे द्विजवाद और ब्राह्मणवाद भी कहते थे। उन्हें इस तथ्य का भी गहरा अहसास था कि यह द्विजवाद और ब्राह्मणवाद बिना पिछड़ी जातियों के समर्थन और सहयोग जिंदा नहीं रह सकता है। इस संदर्भ में उनका कहना था कि “ब्राह्मणवाद के आधार मंदिरों के निर्माता और संरक्षक पिछड़ी जाति के अमीर हैं।” ( पृ.75) उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि मंदिर और अन्य धार्मिक संस्थान शोषितों के फांसी घर हैं। ये ही शोषितों को गुलाम बनाए रखने के अड्डे हैं। उनका कहना था कि “ ईश्वर, वेद, पुराण, शास्त्र और जाल फरेब शोषक के हाथ की तलवार हैं। द्विज विज्ञान और बुद्धि का दुश्मन भी है।” (पृ.17)
वे भारत के वर्ग-संघर्ष को दुनिया के अन्य देशों के वर्ग-संघर्ष से अलग बिलकुल भिन्न मानते थे। रूसी क्रांति से भारत में क्रांति की तुलना करते हुए उन्होंने कहा कि “रूस में सिर्फ आर्थिक असमानता थी, इसलिए वहां सिर्फ आर्थिक शोषण से मुक्ति की समस्या थी। हिंदुस्तान में आर्थिक असमानता के साथ-साथ सामाजिक गैर-बराबरी भी है। जीवन के सभी क्षेत्रों में 10 प्रतिशत ऊंची जात का एकाधिकार जैसा है।..रूस या दुनिया के अन्य देशों में जाति नाम की कोई चीज नहीं है। इसलिए जो वर्ग-संघर्ष का स्वरूप दुनिया के अन्य देशों में रहा, ठीक हिंदुस्तान के लिए नहीं रह सकता।…मार्क्स-लेनिन हिंदुस्तान में पैदा होते तो यहां की ऊंची जातियों को शोषक वर्ग और साम्राज्यवादी करार देते।…रूस का सर्वहारा सिर्फ आर्थिक सर्वहारा है लेकिन हिंदुस्तान का सर्वहारा ( शोषित) आर्थिक और सामाजिक दोनों ख्याल से सर्वहारा है। हिंदुस्तान का सर्वहारा सांस्कृतिक दृष्टि से भी गुलाम है।” ( वही, पृ.60)। भारत की तुलना यूरोप से करते हुए उन्होंने कहा कि “यूरोप में जाति प्रथा नहीं है, ऊंच-नीच की भावना नहीं है। यूरोप में ब्राह्मण-अब्राह्मण की लडाई नहीं है। उन लोगों ने सिर्फ आर्थिक क्रांति की और आर्थिक नाबराबरी को दूर किया। लेकिन हिंदुस्तान एक विशेष स्थिति में है। इसीलिए जो यूरोप में था, ठीक वही हिंदुस्तान में नहीं है। हिंदुस्तान में आर्थिक नाबराबरी के साथ सामाजिक नाबराबरी भी है। सामाजिक नाबराबरी इज्जत की लडाई है। हमें विश्वास है जब तक सामाजिक क्रांति नहीं होगी, तब तक आर्थिक क्रांति नहीं हो सकती।” ( पृ.22) उन्होंने भारत की स्थिति को परिभाषित करते हुए कहा कि “ हमारा देश द्विजवाद पर आधारित वर्ण-व्यवस्था का शिकार रहा है।” (पृ.25)। इसीलिए जीवन के सभी क्षेत्रों में उच्च जातियों के वर्चस्व को तोड़ने के लिए शहीद जगदेव प्रसाद सामाजिक क्रांति को मूल क्रांति मानते थे। उनका कहना था कि “ शोषित दल ( जगदेव प्रसाद का दल) सामाजिक क्रांति को मूल क्रांति समझता है। सामाजिक क्रांति के बिना राजनीतिक क्रांति असंभव है। सामाजिक क्रांति का मतबल है-विशेष अवसर का सिद्धांत। इसके लिए जरूरी है कि राजसत्ता पर 90 प्रतिशत शोषित समाज के नुमांइंदे रहें।” ( वही, पृ.63) उन्होंने भारत के सर्वहारा वर्ग को चिन्हित करते हुए कहा कि “ हिंदुस्तान का शोषित हिंदुस्तान का सर्वहारा तमाम हरिजन ( दलित), आदिवासी, पिछड़ी जाति और नीची जाति के लोग हैं। इनकी आबादी 90 प्रतिशत हैं। 10 प्रतिशत शोषक पूंजीपति, जमींदार, ब्राह्मण, ऊंची जाति के हैं।” ( पृ.22) उनका कहना था कि भारत में लोकतंत्र की स्थापना की अनिवार्य शर्त यह है कि राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में 10 प्रतिशत द्विजों के वर्चस्व को तोड़ा जाए। इसके बिना भारत में जनतंत्र कायम नहीं हो सकता।
भारत में चूंकि सामाजिक क्रांति को जगदेव प्रसाद सबसे मूल क्रांति और सबसे पहले की जाने वाली क्रांति मानते थे। जिसका अर्थ जीवन के सभी क्षेत्रों में 10 प्रतिशत ऊंची जातियों के वर्चस्व को पूरी तरह तोड़ना और 90 प्रतिशत शोषित ( दलित, आदिवासी, मुसलमान और पिछड़े) को उनकी जगह स्थापित करना। जगदेव बाबू का कहना था कि इस तरह की क्रांति के लिए कभी ऊंची जातियों के लोग तैयार नहीं होंगे, चाहे वामपंथी कम्युनिस्ट पार्टी के हों या दक्षिणपंथी जनसंघ के हो या अन्य किसी अन्य पार्टी के। ऊंची जातियों के क्रांति विरोधी चरित्र को वे इन शब्दों में उजागर करते हैं- “मेरा अटूट विश्वास है कि ऊंची जाति वाले आर्थिक सुधार के कुछ हद तक पक्षपाती परिस्थिति के दबाव के कारण होते नजर आते हैं, लेकिन वे सामाजिक क्रांति के कट्टर विरोधी हैं ऊंची जात वाले राजनीति और शासन की बागडोर शोषितों के हाथ में जाने देने के उतने ही कट्टर विरोधी हैं, जितना अमेरिका कम्यूनिज्म का विरोधी है।” ( वही, पृ.67) भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों के क्रांति विरोधी चरित्र को उजागर करते हुए उन्होंने कहा कि “ हिंदुस्तानी जार और कुलांक (जमींदार) कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वेसर्वा हैं। ये लोग सर्वहारा की बोली बोलते हैं, मगर नेतृत्व सर्वहारा के हाथ में नहीं जाने देते हैं।” ( वही, पृ.67)। उनका साफ शब्दों मे कहना था कि ऊंची जातियों से सर्वहारा क्रांति की उम्मीद करना अव्वल दर्जे की बेवकूफी होगी। कहीं कुत्ते से मांस की रखवाली करवाते हैं। ( पृ. 18)
ऊंची जातियों के लोग क्रांतिकारी नहीं हो सकते, ऐसा कहते हुए जगदेव बाबू ने यह भी कहा है कि इसका मतलब यह नहीं है कि शोषित समाज का हर व्यक्ति क्रांतिकारी होता है। ऐसे भी हो सकता है कि कोई शोषित समाज का व्यक्ति सत्ता के शीर्ष पर हो,लेकिन ऊंची जातियों का गुलाम हो। उन्होंने बिहार के दलित मुख्यमंत्री भोला शास्त्री की उदाहरण देते हुए कहा कि हरिजन ( दलित) मुख्यमंत्री ऊंची जात के गुलाम हैं।” ( पृ.79)। इसे हम आज भी देख सकते हैं, ऐसे ही लोगों कांशीराम ने चमचा कहा था। इसका निहितार्थ यह है कि शोषित समाज का होने के साथ ही उस व्यक्ति का ऊंची जात की गुलामी की मानसिकता से मुक्त होना भी जरूरी है। शोषित समाज का वही व्यक्ति क्रांतिकारी परिवर्तन की अगुवाई कर सकता है, जो ब्राह्मणवाद-द्विजवाद से मुक्त हो यानि सवर्णों राजनीतिक हलावाही न करता हो।
सिद्धार्थ रामू (स्वतंत्र पत्रकार)