दुख ने आकर घेर लिया था
सबने ही मुँह फेर लिया
मैंने ऐसे दुर्दम क्षण में
विपदाओं के भीषण रण में
कैसे अपना आप संभाला
पीड़ाओं का शाप संभाला
पूछो मेरे व्याकुल मन से
प्राण नहीं निकले बस तन से।
सबने रंग दिखाये अपने
कैसे तोड़े मेरे सपने
मेरा हँसना लील गये वो
मन रौंदा तन छील गये वो
ढूँढ़ ढूँढ़ कर दोष निकाले
अँधियारों ने छले उजाले
मैं चुप थी वो बोल रहे थे
जैसे ख़ुद को खोल रहे थे
कानन के शिकवे उपवन से
प्राण नहीं निकले बस तन से।
झुकते झुकते टूट रहे थे
सबसे पीछे छूट रहे थे
अच्छाई का मान नहीं था
हम पर उनका ध्यान नहीं था
हमें न भाई दुनियादारी
साथ लिये केवल ख़ुद्दारी
आख़िर थक कर बैठ गये हम
ख़ुद के भीतर पैठ गये हम
कितना डरते परिवर्तन से
प्राण नहीं निकले बस तन से।
~पूनम यादव