वैसे तो नायकों और महापुरुषों को जाति के खांचे में बांटना ही गलत है। मगर एक बार मान लें कि जमाने के हिसाब से जायज भी है तो मुझे यह सबसे बड़ी बेवकूफी लगती है कि ब्राह्मण और भूमिहार जाति के लोग परशुराम को अपना प्रतिनिधि नायक मानते हैं।
परशुराम का चरित्र मुझे कहीं से भी आकर्षित नहीं करता। एक गुस्सैल और मातृहंता व्यक्ति जो अहंकार से भरा है और अपनी इसी कमजोरी की वजह से अपने जीते जी अप्रासंगिक हो जाता है। राम उसे एहसास दिला देते हैं कि अब उनका जमाना खत्म हो गया।
ब्राह्मण जाति को सनातन धर्म ने ज्ञान का उपासक माना है। मिथक और इतिहास काल से लेकर आज तक इस जाति के लोगों में कई ऐसे विद्वान हुए हैं जिन्होंने मानवता का भला किया। मगर यह जाति जब अपना नायक चुनती है तो एक फरसाधारी को चुनती हैं। क्या यह अजीब नहीं लगता।
डिस्क्लेमर – मैं यह इसलिए नहीं लिख रहा कि मैं नियति की वजह से इस जाति में पैदा हुआ। आज की तारीख में मैं खुद को किसी जाति का हिस्सा नहीं मानता। यह सिर्फ इसलिए लिखा कि अस्मीतावाद के इस दौर में जब हर जाति अपने लिए आइकन चुन रही है तो इस जाति ने जिसे हिंदू धर्म की सबसे वर्चस्वशाली जाति माना जाता है अपने लिए आइकन चुनने में कुछ तो समझदारी दिखाई होती। हां, आज इसी परशुराम की जयंती मनाई जा रही है। पूरे बिहार में कई बड़े छोटे आयोजन हो रहे हैं। शक्तिप्रदर्शन टाइप। उनकी जयंती पर सार्वजनिक अवकाश की मांग हो रही है।
खैर। यह बेवकूफियों का वक्त है। हर किसी को अपने हिस्से की बेवकूफी करने का पूरा हक है। जिस इक्कीसवीं सदी में इंसान को जाति और धर्म के खांचे से बाहर निकलना था वह इन धटकर्मों में अटका है।
सभार: पुष्य मित्र जी के फेसबुक वॉल से